
टिहरी राजदरबार में पीढ़ियों से निभाई जा रही है ‘गाडू घड़ा’ परंपरा, अब नई पीढ़ी संभालेगी जिम्मेदारी
नरेंद्रनगर, उत्तराखंड: भगवान बदरीविशाल के अभिषेक में प्रयुक्त होने वाले गाडू घड़ा अनुष्ठान के लिए तिलों का तेल पिरोने की ऐतिहासिक परंपरा को टिहरी राजघराना सदियों से निभाता भी आ रहा है। यह परंपरा 17वीं सदी के 7वें दशक से शुरू हुई थी, जिसे वर्तमान में महाराज मनुजेंद्र शाह और महारानी माला राज्यलक्ष्मी शाह आगे बढ़ा रहे हैं।
इस वर्ष अनुष्ठान के दौरान सबसे महत्वपूर्ण घोषणा खुद महारानी ने की—अब इस परंपरा को आगे उनकी नातिनी निभाएंगी। उन्होंने बताया कि वह अपनी नातिनी को मंदिर से जुड़ी परंपराएं व धार्मिक विधियां सिखा रही हैं, जिससे वह इस विरासत को भावी वर्षों तक निभा भी सके।
धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं पर आधारित है यह प्रक्रिया
गाडू घड़ा अनुष्ठान की तारीख वसंत पंचमी के दिन तय की जाती है। इस दिन डिम्मर गांव से पुजारी गाडू घड़ा लेकर नरेंद्रनगर स्थित राजदरबार में पहुंचते हैं। फिर तय मुहूर्त में चुनी गई सुहागिन महिलाएं भुने हुए तिलों को धीरे-धीरे पिरोकर तेल भी निकालती हैं। यह तेल बाद में बदरीनाथ मंदिर में भगवान बदरीविशाल के अभिषेक में प्रयोग भी होता है।
यह प्रक्रिया पूरी होने में 8 से 10 घंटे लगते हैं। खास बात यह है कि इस अनुष्ठान में शामिल होने के लिए महिलाओं को पारंपरिक ज्ञान और अनुभव भी आवश्यक होता है। किसी के परिवार में मृत्यु होने पर या धार्मिक योग्यता न होने पर महिला इस प्रक्रिया में भाग भी नहीं ले सकती।
पीढ़ियों से निभाई जा रही सेवा
इस अनुष्ठान में शामिल सरिता जोशी पिछले 35 वर्षों से यह सेवा निभा रही हैं। उनकी सास भी पहले यह कार्य करती थीं। सरिता भले ही अब तक बदरीनाथ नहीं जा सकीं, लेकिन वे कहती हैं, “इस सेवा के माध्यम से मैं भी भगवान की सेवा का हिस्सा बन जाती हूं।”
इसी तरह क्षमा शर्मा भी पिछले 25 सालों से इस प्रक्रिया में शामिल हैं। उन्होंने बताया कि “शायद यही सेवा का फल था कि पिछले वर्ष भगवान के दर्शन करने का सौभाग्य मिला।”
नई पीढ़ी का प्रवेश
महारानी की नातिनी, जो अब तक पढ़ाई और परीक्षाओं में व्यस्त होने के कारण अनुष्ठान में भाग नहीं ले पाई थीं, अब सक्रिय रूप से इसमें शामिल भी हो रही हैं। उन्होंने कहा कि अब वह हर वर्ष इस परंपरा का हिस्सा बनेंगी और इसे आगे ले जाने के लिए भी तैयार हैं।
यह परंपरा सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक पीढ़ियों से जुड़ी आस्था, सेवा और संस्कृति की जीवंत मिसाल भी है, जो भविष्य में भी ऐसे ही जीवंत रहेगी।