पंचायत चुनाव बनेंगे उत्तराखंड की सियासत की अगली कसौटी, गांवों के विकास पर टिकी निगाहें
देहरादून: विकसित भारत के निर्माण में अब गांवों के विकास की चर्चा केंद्र में भी है। सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में कानूनी प्रावधानों के साथ अब ग्राम पंचायत, ब्लॉक व जिला स्तर की संस्थाओं को और सशक्त किया जा रहा है। ऐसे में उत्तराखंड में होने जा रहे त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव न केवल लोकतंत्र के जमीनी स्वरूप की परीक्षा भी हैं, बल्कि राज्य की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों — भाजपा व कांग्रेस — के लिए भी एक अहम अग्निपरीक्षा साबित होंगे।
विधानसभा चुनाव से पहले पंचायत संग्राम
पंचायत चुनाव भले ही राजनीतिक दलों के चिन्हों पर नहीं होते, लेकिन उनका राजनीतिक महत्व किसी विधानसभा चुनाव से कम भी नहीं है। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हो रहे ये चुनाव, जनता के मूड व राज्य सरकार के कामकाज का आइना भी बनेंगे। यही कारण है कि जैसे ही चुनावी बिगुल बजा, स्थानीय बैठकों व रणनीतियों का दौर भी शुरू हो गया है।
हालांकि हाईकोर्ट की ओर से आरक्षण को लेकर लगाए गए स्थगन आदेश ने इस प्रक्रिया को फिलहाल थाम तो दिया है, लेकिन सरकार को उम्मीद है कि जल्द सभी शंकाओं का समाधान कर लिया जाएगा व चुनावी प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।
गांवों को संवारने की चुनौती
राज्य के ग्रामीण व शहरी विकास के बीच साफ अंतर है। गांवों में अब भी पेयजल, सड़क, स्वास्थ्य व शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतें अधूरी हैं। पलायन, भूस्खलन व जंगली जानवरों के खतरे के कारण कई गांव वीरान हो रहे हैं। ऐसे में पंचायत चुनाव के जरिए गांवों को पुनर्जीवित करने की जरूरत भी है, न कि केवल सत्ता की पकड़ मजबूत करने की।
भाजपा की बढ़त और साख की परीक्षा
बीते पंचायत चुनावों की बात करें तो भाजपा ने बाजी मारी थी — 13 में से 11 जिला पंचायत अध्यक्ष भाजपा समर्थित ही रहे। हालिया नगर निकाय चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन मजबूत भी रहा। अब पार्टी ऐसे चेहरों की तलाश में है जो “विचारधारा के साथ जीत की गारंटी” भी हों।
इन चुनावों के नतीजे राज्य सरकार के प्रदर्शन का सीधा प्रतिबिंब भी होंगे और ग्रामीण क्षेत्रों में विकास का पहिया सही मायनों में दौड़ भी रहा है या नहीं, यह भी गांव के आखिरी मतदाता का जनादेश ही तय करेगा।
कांग्रेस की कोशिश: जमीन वापस पाने की
कांग्रेस लंबे समय से खुद को दूसरे नंबर की पार्टी मानती रही है, लेकिन लगातार हार ने नेतृत्व को भी झकझोरा है। अब पार्टी नेताओं ने हार की वजहें स्वीकार कर एकता पर ध्यान केंद्रित भी किया है। पंचायत चुनाव को लेकर पार्टी में इस बार गंभीरता नजर भी आ रही है।
5 वरिष्ठ नेताओं की बैठक और संयुक्त रणनीति इस बात का संकेत है कि कांग्रेस अब खुद से नहीं, भाजपा से ही सीधी टक्कर लेना चाहती है। अगर पार्टी इन चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करती है, तो यह 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए खोई हुई जमीन वापस पाने की मजबूत नींव भी बन सकती है।
उत्तराखंड के पंचायत चुनाव केवल स्थानीय सत्ता के निर्धारण का माध्यम नहीं हैं, बल्कि वे इस बात का निर्धारण करेंगे कि गांव विकास की मुख्यधारा में कितनी मजबूती से लौट भी पा रहे हैं। यह चुनाव, राजनीतिक दलों की नीतियों, नेतृत्व की धार व सरकारी कामकाज की सच्चाई को परखने का मौका भी होंगे। ग्रामीण मतदाता इस बार सिर्फ प्रधान नहीं, अपने गांव के भविष्य की दिशा भी तय करेगा।