2030 तक कार्बन उत्सर्जन में आएगी एक तिहाई की कमी, वैज्ञानिक संस्थान जुटे

देहरादून। देश में सालाना 3.3 गीगाटन हो रहे कार्बन उत्सर्जन में से एक तिहाई उत्सर्जन साल 2030 तक कम हो सकता है। इसके साथ ही हरित ऊर्जा उत्पादन में भी उल्लेखनीय वृद्धि की संभावना भी जताई जा रही है। इस दिशा में देश के अग्रणी वैज्ञानिक संस्थान मिलकर प्रयासरत भी हैं।

आईआईटी रुड़की के निदेशक डॉ. केके पंत ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम (आईआईपी) में बातचीत में बताया कि यदि तकनीक और नीतियों का सही समन्वय हुआ, तो यह लक्ष्य समय से पहले भी प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि वर्तमान में सबसे बड़ी चुनौती उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले माध्यमों से ही निकलने वाले कार्बन को उपयोगी उत्पादों में बदलने की है।

2030 तक 1000 गीगावाट ऊर्जा की जरूरत, आधी होगी नवीकरणीय

डॉ. पंत ने बताया कि 2030 तक देश को लगभग 1000 गीगावाट ऊर्जा की जरूरत होगी, जिसमें से 500 गीगावाट नवीकरणीय स्रोतों से आएगी। शेष 500 गीगावाट ऊर्जा पारंपरिक साधनों जैसे कोयले से प्राप्त होगी, जिससे भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होगा। उन्होंने जोर दिया कि ऐसे में “लो-कार्बन प्रोडक्ट” विकसित करना भी अनिवार्य हो गया है।

कार्बन को उपयोगी बनाने की दिशा में काम तेज

डॉ. पंत के अनुसार, क्रूड ऑयल व अन्य उद्योगों से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड को एकत्रित कर उसे दोबारा उपयोगी उत्पादों में बदलने की दिशा में तकनीकी विकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि चीन जैसी वैश्विक ताकतों के साथ मुकाबला करने के लिए भारत को भी इस क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ना भी होगा। इसके लिए इंडस्ट्री और शैक्षणिक संस्थानों के बीच समन्वय बेहद जरूरी है।

आईआईटी रुड़की कर रहा कार्बन से ईंधन उत्पादन पर शोध

आईआईटी रुड़की इस दिशा में कई स्तरों पर शोध कर रहा है। डॉ. पंत ने बताया कि संस्थान में कार्बन डाईऑक्साइड से मेथेनॉल और डाईमिथाइल ईथर तैयार करने पर काम हो रहा है। साथ ही बायोमास से बायोऑयल, जेट फ्यूल, ग्रेफाइट और हाइड्रोजन जैसे उत्पादों के विकास पर भी प्रयोगशालाओं में अनुसंधान जारी है।

उन्होंने कहा कि यदि 12 से 15 किलोग्राम बायोमास से 150 से 180 रुपये मूल्य का एक किलोग्राम हाइड्रोजन तैयार किया जा सकता है, तो यह ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी बदलाव भी हो सकता है।