वन विभाग ने उत्तराखंड में बाघों और तेंदुओं पर कैनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) के खतरे का पता लगाने का किया फैसला

वन विभाग ने उत्तराखंड में बाघों और तेंदुओं पर कैनाइन डिस्टेंपर वायरस (सीडीवी) के खतरे का पता लगाने का फैसला भी किया। यह जानने के लिए विभाग रेस्क्यू ऑपरेशन में पकड़े गए बाघों व तेंदुओं के ब्लड सैंपल लेकर उनकी जांच भी करेगा। इस काम में वन विभाग के साथ उत्तराखंड का पशुपालन विभाग व इंडियन वेटनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट इज्जतनगर की टीम मिलकर काम करेगी।

कार्बेट टाइगर रिजर्व के अधिकारियों ने नेशनल मिशन फॉर हिमालय स्टडी के तहत एक प्रोजेक्ट पर्यावरण वन जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को भेजा था। इसके तहत सीडीवी की बीमारी की चुनौतियों के बारे में पता करना था। इसकी मंत्रालय से हरी झंडी मिलने के बाद योजना पर काम को भी शुरू किया गया है।

कार्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक धीरज पांडे कहते हैं सीडीवी के सर्विलांस की कोई तय व्यवस्था ही नहीं है। जबकि रूस व मलेशिया जैसे देशों में काफी काम भी हुआ। इसको दृष्टिगत रखते हुए यह प्रोजेक्ट को बनाया गया। यह बीमारी लावारिस कुत्तों के आदि के माध्यम से ही फैलती है। अगर किसी कुत्ते में यह बीमारी है व कोई लेपर्ड जंगल से आकर इस कुत्ते का शिकार करता है तो यह बीमारी जंगल के अंदर भी पहुंच जाएगी। पूर्व में सीडीवी के मामले आए हैं।

इस बीमारी के सर्विलांस का प्रोटोकॉल तैयार करने के लिए प्रोजेक्ट को भी बना है। इसमें बाघ, तेंदुए तो नहीं आए हैं, यह पता करने का प्रयास भी किया जाएगा। जो बाघ, तेंदुए हमारे यहां और प्रदेश में कहीं रेस्क्यू किए जाएंगे उनके ब्लड सैंपल को लेकर जांच के लिए इंडियन वेटनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट को भी भेजा जाएगा। एक बार बीमारी के प्रोटोकॉल भी तैयार हो जाएगा तो भविष्य में हम बीमारी को लेकर निगरानी उसकी रोकथाम संवेदनशील जगहों को चिन्हित करने जैसे काम व बेहतर ढंग से कर सकेंगे

सीटीआर निदेशक पांडे कहते हैं कि सीडीवी एक न्यूरो लॉजिकल डिसआर्डर भी होता है। इससे कई बार बाघ, तेंदुए की मौत हो जाती है, कई बच जाते हैं। ब्लड की जांच में अगर एंटीबाडी मिलती है तो इससे यह पता चलेगा कि पहले यह वन्यजीव कभी वन्यजीव बीमारी की चपेट में भी आया होगा। देश में पूर्व में भी सीडीवी के मामले सामने भी आ चुके हैं।