कभी थी यूकेडी की धमक…अब स्थिति ऐसी अल्मोड़ा सीट पर प्रत्याशी ही नहीं

25 जुलाई 1979 को मसूरी में पृथक पर्वतीय राज्य की अवधारणा के साथ यूकेडी का गठन हुआ। यूपी के शिक्षा निदेशक व कुमाऊं विवि के पहले कुलपति रहे गणाईगंगोली निवासी डॉ. डीडी पंत दल के संस्थापक अध्यक्ष भी बने। यूकेडी गठन के मात्र एक वर्ष में 1980 में हुए चुनाव में रानीखेत से यूकेडी के जसवंत सिंह बिष्ट ने जीत दर्ज कर उत्तर प्रदेश विधानसभा भी पहुंचे।

 

यूकेडी ने पृथक राज्य के लिए लगातार आंदोलन किए तो कारवां भी बढ़ने लगा। साल 1985 में काशी सिंह ऐरी डीडीहाट विधानसभा क्षेत्र से पहली बार विधायक भी बने। साल 1989 के चुनाव में डीडीहाट की जनता ने एक बार फिर से ऐरी को यूपी विधानसभा भेजा। साल 1993 के विधानसभा चुनाव में ऐरी ने डीडीहाट से जीत की हैट्रिक भी लगाई। यह वही दौर था, जब रानीखेत से वहां की जनता जसवंत सिंह बिष्ट को विधानसभा में भेजती भी रही। साल 2002 में हुए विधानसभा के पहले चुनाव में कनालीछीना से काशी सिंह ऐरी जीते तो द्वाराहाट से स्वर्गीय विपिन त्रिपाठी, नैनीताल से डॉ. नारायण सिंह जंतवाल और यमनोत्री से प्रीतम पंवार को जनता ने विधानसभा में भेजा।

 

साल 2007 में दल का प्रतिनिधित्व घटकर 3 रह गया। द्वाराहाट से पुष्पेश त्रिपाठी, देवप्रयाग से दिवाकर भट्ट और नरेंद्रनगर से ओमगोपाल रावत विधायक चुने गए। ऐरी कनालीछीना से हार भी गए। साल 2012 के चुनाव में यूकेडी से ऐरी धारचूला से और पुष्पेश त्रिपाठी द्वाराहाट से चुनाव हार गए। उक्रांद डी के दिवाकर भट्ट बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ने के बावजूद भी चुनाव हारे। साल 2012 में यमनोत्री सीट से प्रीतम पंवार यूकेडी से एकमात्र विधायक चुने गए व कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहे। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में यूकेडी एक भी सीट नहीं जीत पाया। तब प्रीतम पंवार यमनोत्री से निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते भी। बाद में बीजेपी में शामिल हो गए। साल 2022 के चुनाव में भी दल के हाथ सिर्फ निराशा ही लगी।

 

आंदोलन से जन्मी पार्टी को आंदोलनों से मुंह मोड़ना भारी भी पड़ा। इस दल की हालत पतली ही होती चली गई। आंदोलन से जन्मे इस दल ने राज्य गठन के बाद आंदोलनों से दूरी क्या ही बनाई, दल की धमक मंद भी होती चली गई। दल यदा-कदा स्थायी राजधानी के मुद्दे पर सड़कों पर भी उतरता है, पर इस दल के अभियानों में अब पहले जैसी बात ही नहीं रही।

 

यूकेडी के नेताओं की अति महत्वाकांक्षा ही कही जाएगी कि दल का कई बार विघटन भी हुआ। साल 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ दल के नेताओं की नजदीकियां भी बढ़ना जनता के गुस्से का कारण बनी। साल 1994 के ऐतिहासिक उत्तराखंड आंदोलन के बाद यूकेडी व सपा के रिश्तों में खटास आ गई। साल 1996 में चुनाव बहिष्कार का फैसला दल के खिलाफ गया। साल 2007 में बीजेपी, साल 2012 में कांग्रेस की सरकार को समर्थन देने से भी जनता में गलत संदेश भी गया।