उत्तराखंड का हिमालय दिवस, स्थानीय संस्कृति से वैश्विक पर्यावरणीय चिंताओं तक

हिमालय की उपयोगिता और महत्व को उत्तराखंड बखूबी समझता है। पहाड़ के लोग हमेशा से हिमालय की दृढ़ता कैसे कायम रहे इसे लेकर दृढ़ रहे हैं। उन्हें जन्म से पर्यावरण के साथ संतुलन साधने का अभ्यास जो है। नदियों की अविरलता और निर्मलता का अहसास है। उनके लिए निर्जन हिमालय तप का साधन है।

 

दुनिया के देशों के लिए विश्व पर्यावरण दिवस प्रकृति की छेड़छाड़ से उपजे उन तमाम मानवीय चिंताओं को उठाने का दिवस और माध्यम है, लेकिन हिमालय दिवस हर लिहाज से हिमालयी राज्यों के ज्यादा करीब है। हिमालय को लेकर उत्तराखंड की चिंता नई नहीं है। हिमालय सिर्फ सुदूर डटकर खड़े रहकर सभ्यता की रक्षा नहीं कर रहा, बल्कि पहाड़ के जनजीवन, स्वास्थ्य, कृषि से सीधा जुड़ाव है। प्रकृति को बचाए और बनाए रखने के साथ हिमालयी राज्यों को प्रतिकूल मौसम से भी सुरक्षित बनाए है।

 

जानकारी के मुताबिक  उत्तराखंड ने एक दिन चुना है हिमालय के गुणगान के लिए। हिमालय दिवस देश-दुनिया की जुबान पर कुछ वर्षों से ही चढ़ा है। वहीं राष्ट्रीय स्तर पर बीते पांच-छह वर्षों से हिमालय के सरोकार पर चर्चा और बचाने का संकल्प मजबूत हुआ है। उत्तराखंड इकलौता राज्य है, जहां से हिमालय दिवस की अवधारणा ने सत्तर के दशक में जोर पकड़ा और लगातार पैरवी में जुटा हुआ है। 1973 में जिस तरह 24 सौ पेड़ बचाने के लिए गौरादेवी आगे आईं और कुछ अन्य महिलाओं के साथ उन्हें कटने से बचा लिया।

 

वहीं, सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और गोविंद सिंह रावत आदि ने उस दौर में हिमालय की रक्षा के लिए प्रयास किए, जब दुनिया आने वाले खतरे से अनभिज्ञ थी। इस दौर में भी हिमालय पर्यावरण अध्ययन और संरक्षण संगठन के अनिल जोशी आदि कई नाम हैं, जो नई पीढ़ी को आने वाले खतरों के प्रति सचेत कर रहे हैं।

संस्थाएं हिमालय दिवस के बहाने हर साल मानवता के भविष्य के खतरों, चिंताओं और मुद्दों से दुनिया को रूबरू करा रही हैं। राज्य ने 2014-15 में हिमालय दिवस को अधिकारिक तौर पर मान्यता दी थी। तब से यहां की सरकारें, सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं हिमालय दिवस में छुपे गूढ़ अर्थ के साथ हिमालय से जुड़े अनदेखे खतरों को समझने और समझाने का प्रयास कर रही हैं।

 

उत्तराखंड में राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में वाडिया इंस्टीट्यूट, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान, आईआईटी रुड़की, इंडियन रिमोट सेंसिंग, केंद्रीय भवन अनुसंधान संस्थान, ज्यूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भारतीय वन्य जीव संस्थान, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, भारतीय वानिकी अनुसंधान व शिक्षा परिषद आदि हिमालय को और अधिक करीब से समझने, वहां लगातार हो रहे बदलाव और दुष्प्रभावों पर अपने-अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में जलवायु के बदले मिजाज, चमकदार ग्लेशियरों का बिखराव और अन्य खतरों के साथ संस्थाओं की जांच-पड़ताल का दायरा भी बढ़ता जा रहा है।

संवेदनशील उपकरणों से लैस तकनीकी लैब से निकल रहे निष्कर्ष, विषम परिस्थितियों में जमीनी पड़ताल, शोधपत्रों में खंगाली गई जानकारियों का भंडार हैं। साल में एक बार ही सही, हिमालय दिवस पर विशेषज्ञों के तर्क, विचार और सलाह आने वाले खतरों से चेता रहे हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक जरूरी है आमजन की भागीदारी। समय है संस्थाओं के वैज्ञानिक ज्ञान को बढ़ावा देकर इस दिन को जागरूकता और सामुदायिक भागीदारी के रूप में भी याद रखें।