आपदा से टूटा धुर्मा गांव: नवरात्र, पांडव लीला और दशहरा शादियां सब ठंडी पड़ीं, गांव ने त्यागे उत्सव

उत्तराखंड के चमोली ज़िले के धुर्मा गांव में इस बार कोई त्योहार नहीं मनाया जाएगा। न नवरात्र की रौनक, न पांडव लीला की परंपरा और न ही दशहरे की तैयारियां—सभी कुछ इस बार मौन और मातम में डूब गया है। गांव के लोग अब भी बीते सप्ताह आई भीषण आपदा के सदमे से उबर नहीं पाए हैं। और जब तक लापता दो लोगों का पता नहीं चल जाता, गांव ने तय कर लिया है—कोई भी धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजन नहीं होगा

उत्सव नहीं, उदासी है इस बार नवरात्रों में

हर साल नवरात्र पर धुर्मा गांव में धार्मिक आयोजन, दुर्गा पूजा और पांडव लीला की धूम रहती थी। लेकिन इस बार गांव में चुप्पी और चिंता का माहौल है। गांव के निवासी मंगल सिंह कहते हैं:

“इस बार नवरात्र नहीं मनाएंगे। जब तक हमारे अपने नहीं मिलते, न कोई गीत होगा, न नृत्य, न आरती।”

पांडव लीला, जो इस बार भव्य तरीके से आयोजित होने वाली थी, अब नहीं होगी। यहां तक कि दशहरे के बाद तय की गई तीन शादियों को भी अब सादगी से संपन्न किया जाएगा।

जीवन फिर से शुरू करने की चुनौती

आपदा को एक सप्ताह हो चुका है, लेकिन ग्रामीणों के चेहरों से दहशत और ग़म के भाव अभी तक नहीं हटे हैं। कई घर मिट्टी और मलबे में समा गए, लोगों का रहन-सहन का सामान, अनाज, बर्तन सबकुछ नष्ट हो गया है।

गांव के अधिकांश लोग अब अपने पुराने मूल गांव, जो एक किलोमीटर ऊपर स्थित है, में शरण ले रहे हैं। वहां के कुछ पुश्तैनी मकान अभी रहने लायक हैं। भूपाल सिंह, पुष्पा देवी, गोमती देवी, यशवंत सिंह और कई अन्य परिवार वहीं शिफ्ट हो चुके हैं।

पूर्व विधायक का दौरा, खोज अभियान तेज़ करने की मांग

धुर्मा गांव, सेरा और कुंतरी जैसे प्रभावित इलाकों का पूर्व विधायक जीतराम ने दौरा किया। उन्होंने प्रशासन से लापता लोगों की खोज में मैनपावर और मशीनों को बढ़ाने की मांग की। उन्होंने कहा:

“आपदा प्रभावितों को तत्काल उचित मुआवजा मिलना चाहिए और खोज अभियान में तेजी लाई जानी चाहिए।”

जिस पहाड़ी से लोग सुख की कामना करते थे, वहीं से टूटा दुख का पहाड़

विनसर पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित महादेव मंदिर कभी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र था। लोग वहां सुख-समृद्धि की प्रार्थना करने जाते थे। लेकिन इस बार उसी पहाड़ी से ऐसा मिट्टी और मलबे का सैलाब फूटा कि पूरा गांव उसकी चपेट में आ गया।

नंदानगर क्षेत्र के आठ किलोमीटर के दायरे में प्रकृति ने ऐसा कहर बरपाया कि हर तरफ तबाही के निशान नजर आ रहे हैं—उजड़े खेत, टूटे घर और रोते-बिलखते लोग।

दुख और उम्मीद के बीच जी रहे हैं लोग

धुर्मा के ग्रामीणों की आंखों में अभी भी अश्रु और आशा दोनों हैं। हर किसी को उम्मीद है कि लापता लोग किसी चमत्कार से जीवित मिल जाएं, लेकिन आंखों ने जो देखा है, दिल उसे मानने को तैयार नहीं।

हर तरफ एक ही सवाल गूंज रहा है:

“क्या अब जीवन पहले जैसा हो पाएगा?”

सरकारी और सामाजिक मदद की ज़रूरत

धुर्मा, सेरा, कुंतरी और अन्य प्रभावित इलाकों के लिए अब सिर्फ मुआवजे की नहीं, बल्कि पुनर्वास और पुनर्निर्माण की नीति की आवश्यकता है। प्रशासन को चाहिए कि:

  •  खोज और बचाव कार्य में तेजी लाई जाए

  •  राहत कैंपों की संख्या और सुविधा बढ़ाई जाए

  •  पुश्तैनी मकानों की मरम्मत में सहायता दी जाए

  • जिनका सबकुछ तबाह हो गया है, उन्हें स्थायी पुनर्वास दिया जाए

धुर्मा गांव इस बार नवरात्र नहीं मनाएगा। नवरात्रि की देवी मां की पूजा, पांडव लीला के ढोल नगाड़े और दशहरे की बारातें—ये सब कुछ मौन हो चुके हैं। लेकिन गांववालों की उम्मीद अब भी जिंदा है।

जब तक लापता अपनों की खबर नहीं मिलती, धुर्मा के हर घर में दिया मौन श्रद्धांजलि के रूप में जलता रहेगा