समान नागरिक संहिता में एक प्रावधान शादी का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन बताया जा रहा है।

समान नागरिक संहिता में एक प्रावधान शादी का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन बताया जा रहा है। इस प्रावधान पर कानून के जानकारों का मानना है कि इससे दंपती को कई तरह के लाभ भी मिलेंगे। इससे विवाहों में होने वाले फर्जीवाड़े पर लगाम भी लग सकेगा। इसके साथ ही भविष्य में विवाद की संभावनाएं भी कम होंगी तो सरकारी योजनाओं का निर्विवाद रूप से लाभ भी मिल सकेगा।

वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण सक्सेना ने बताया, शादी का रजिस्ट्रेशन कराने की व्यवस्था लंबे समय से ही है। इससे सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें भविष्य में होने वाले दंपती के बीच विवाद भी नहीं होंगे। शादी हर तरफ से मान्य होगी। इसके साथ ही भविष्य में होने वाले उत्तराधिकारी के विवाद का भी एक तरह से ही यह समाधान होता है।

इसके साथ ही आमतौर पर सामने आने वाले फर्जीवाड़े जो कि उम्र को लेकर होते हैं, उनकी संभावना न के बराबर भी होगी। यदि किसी भी साथी की उम्र निर्धारित उम्र से कम है तो उसका रजिस्ट्रेशन नहीं होगा और शादी भी मान्य नहीं होगी। इससे सरकारी योजनाओं का लाभ आसानी से भी मिल सकेगा।

स्पेशल मैरिज एक्ट में पहले से ही शादी का रजिस्ट्रेशन भी कराना आवश्यक होता है। इसके लिए बाकायदा 30 दिन की नोटिस अवधि होती है। ऐसे में माना जा रहा है कि यह एक्ट भी यूसीसी के प्रावधानों में ही समायोजित भी कर दिया जाएगा। हालांकि, सब कुछ रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद ही कहा जा सकता है।

समान नागरिक संहिता के प्रबल हिमायती एडवोकेट अश्वनी उपाध्याय के मुताबिक, समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने से भी कई समस्याएं हैं।

  1. कुछ कानून में बहु विवाह करने की भी छूट है। चूंकि हिंदू, ईसाई और पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और 7 वर्ष की सजा का भी प्रावधान है। इसलिए कुछ लोग दूसरा विवाह करने के लिए धर्म भी बदल देते हैं।
  2. विवाह की न्यूनतम उम्र कहीं तय तो कहीं तय भी नहीं है। एक धर्म में छोटी उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती है। वे शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होतीं। जबकि अन्य धर्मों में लड़कियों के 18 और लड़कों के लिए 21 वर्ष की उम्र भी लागू है।
  3. एक कानून में मौखिक वसीयत और दान मान्य है। जबकि दूसरे कानूनों में शत प्रतिशत संपत्ति का वसीयत भी किया जा सकता है। यह धार्मिक यह मजहबी विषय नहीं बल्कि सिविल राइट या मानवाधिकार का मामला भी है।

 

  1. एक कानून में उत्तराधिकार की व्यवस्था अत्यधिक जटिल भी है। पैतृक संपत्ति में पुत्र और पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है। कई धर्मों में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार परिभाषित भी नहीं हैं। विवाह के बाद बेटियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था भी नहीं है। ये अपरिभाषित भी हैं।
  2. विवाह की न्यूनतम आयु, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम, संपत्ति का अधिकार सिविल राइट से संबंधित भी हैं, जिनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है न ही इन्हें धार्मिक यह मजहबी व्यवहार भी कहा जा सकता है।
  3. समाज में सैकड़ों जटिल, बेकार व पुराने कानून हैं, जिनसे मुक्ति भी मिलनी चाहिए।