प्रदेश में दरकते पहाड़ की तरह छूटती जा रही है खेती, वर्ष दर वर्ष घट रहा है रकबा

लोकसभा चुनाव में खेती व किसानी बेशक राजनीतिक दलों के लिए प्रमुख मुद्दा न हो लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीण व किसान के लिए छूटती खेती सबसे बड़ी परेशानी का सबब भी है। कागजों में राज्य की बड़ी आबादी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर भी दिखाई देती है लेकिन हकीकत में उत्तराखंड की खेती-किसानी अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। खासतौर पर राज्य के पर्वतीय इलाकों में कभी मंडुवा, झंगोरा, लाल चावल, राजमा और मटर की खेती से हरे-भरे रहने वाले खेत आज उजाड़ भी हो चुके हैं। कहीं सिंचाई के संसाधनों के अभाव में तो कहीं जंगली जानवरों की घुसपैठ की वजह से खेती छोड़ना किसानों की मजबूरी भी बन गई है।

 

जिस राज्य में 70 फीसदी से अधिक भू-भाग वन क्षेत्र हो व खेती के लिए बेहद सीमित भूमि बची हो, वहां खेती-किसानी का छूटना न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि भविष्य के लिए भी खतरनाक है। यह संकट उस सूरत में और भी भयावह दिखाई देता है जब यह तथ्य भी सामने आता है कि राज्य गठन बाद से अब तक 2 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि भी कम हो गई है। किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारें योजनाओं का मरहम तो लगा रही हैं फिर भी उत्तराखंड में उपजाऊ भूमि बंजर ही होती जा रही है। जंगली जानवरों के नुकसान से कास्तकार खेती भी छोड़ रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण टिहरी जिले के जाखणीधार ब्लॉक के सेमा गांव का है। इस गांव में 70 परिवार ही निवास करते हैं। इस बार इन ग्रामीणों ने अपने खेतों में गेहूं की बिजाई इसलिए नहीं की, क्योंकि हर बार जंगली जानवर यहाँ फसल तैयार होने से पहले ही इसे तबाह कर देते हैं। उनके हाथ कुछ भी नहीं लगता। खेतीबाड़ी छोड़ना उनकी मजबूरी भी हो गयी है।

 

राज्य गठन के समय ही उत्तराखंड में कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था। जो 24 वर्षो में घट कर 5.68 लाख हेक्टेयर पर ही पहुंच गया है। हर चुनाव में खेती किसानी व कास्तकार के आमदनी बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल मुद्दे को ही बनाते हैं लेकिन ये चुनावी वादे राज्य में खेती किसानी की तस्वीर ही नहीं बदल पाई है। हकीकत यह है कि खेती का रकबा वर्ष दर वर्ष घट ही रहा है। जंगली जानवरों की समस्या, सिंचाई सुविधा का अभाव, बिखरी कृषि जोत के कारण लोग खेती से पलायन भी कर रहे हैं।

 

पर्वतीय क्षेत्रों में खेती किसानी में सबसे बड़ी चुनौती भी बिखरी कृषि जोत है। वर्ष 1962 से आज तक जमीनों का बंदोबस्त ही नहीं हुआ है। किसानों के पास एक ही जगह पर खेती के पर्याप्त भूमि भी नहीं है। एक खेत पहाड़ के इस धार में भी है तो दूसरा खेत दूसरी धार में ही है। जिसमें खेतीबाड़ी करने में ज्यादा मेहनत भी लगती है। साथ ही फसलों की रखवाली ही नहीं हो पाती है। क्लस्टर और संविदा खेती के लिए पहाड़ों में कृषि भूमि की सबसे बड़ी समस्या भी है। सरकारों ने इस समस्या को देखते हुए चकबंदी की पहल भी थी। लेकिन गोल खातों के चलते चकबंदी सिरे ही नहीं चढ़ पाई है।

 

प्रदेश के कुल कृषि क्षेत्रफल का 49.55 प्रतिशत पर्वतीय क्षेत्र में भी आता है। जबकि 50.45 प्रतिशत मैदानी और तराई का क्षेत्र है। पर्वतीय क्षेत्रों में मात्र 12.06 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा भी है। जबकि किसानों को फसलों की पैदावार के लिए बारिश पर ही निर्भर रहना पड़ता है। समय पर बारिश नहीं हुई तो किसानों को मेहनत के बराबर भी उपज हाथ नहीं ही लगती है।

 

मंडुवा, झंगोरा, चौलाई, राजमा, गहथ और काला भट्ट परंपरागत फसलें है। श्री अन्न योजना से इन मोटे अनाजों को पहचान तो मिली लेकिन बाजार की मांग को पूरा करने के लिए पैदावार बढ़ाना एक चुनौती भी है। राज्य गठन के बाद मंडुवा का क्षेत्रफल आधा ही हो गया है। वर्ष 2001-2002 में प्रदेश में मंडुवे का क्षेत्रफल 1.32 लाख हेक्टेयर भी था। जो अब वर्ष 2023-24 में घट कर 70 हजार हेक्टेयर ही रह गया।

 

प्रदेश में 70 प्रतिशत से अधिक है वन क्षेत्र। वनों से सटे गांवों में चीड़ तेजी से भी फैल रहा है। इसका असर फसलों की पैदावार पर भी पड़ रहा है। साथ ही खेतों के आसपास के जलस्रोत भी अब सूख रहे हैं। किसान अब खेतों से चीड़ हटाने के लिए नीति बनाने की मांग को भी उठा रहे हैं। जिससे किसान खेतों से चीड़ काट कर इसकी जगह अखरोट और अन्य फलदार का उत्पादन कर सके।

 

प्राकृतिक आपदा और मौसम की मार से किसी क्षेत्र में फसलों को 30 प्रतिशत तक का नुकसान होता है तो किसानों को मुआवजे का प्रावधान ही नहीं है। फसल बीमा योजना के तहत मानकों के अनुसार 33 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर ही क्षतिपूर्ति का भुगतान भी किया जाता है। वर्ष 2023-24 में 86,376 किसानों ने फसल बीमा भी कराया है। जिसमें कुल 23,712 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र भी शामिल है।

 

एसपी नौटियाल का कहना है वर्ष 2017 में सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होने के बाद ही अपने गांव सेमा वापस जाने की सोची। 10 नाली से 12 नाली खाली पड़ी जमीन को खेती योग्य भी बनाया। 20 नाली से 30 नाली जमीन में चीड़ होने से खेती की हिम्मत ही टूट गई। जंगली जानवरों के नुकसान से गांव के लोगों ने इस बार गेहूं की बिजाई भी नहीं की। यह समस्या केवल सेमा गांव की ही नहीं है पूरे प्रदेश की है। राजनीतिक दलों को इस समस्या को गंभीरता से भी लेना चाहिए। ताकि पहाड़ों में खेती-किसानी भी बची रहे।

 

मैती आंदोलन के संस्थापक पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ने कहा पहाड़ों में खेती किसानी के सामने एक बड़ी समस्या भूमि प्रबंधन की भी है। कृषि भूमि सीमित होने के साथ बिखरी हुई भी है। आज तक पहाड़ों में चकबंदी भी नहीं हो पाई। जबकि राज्य में सबसे बड़ा स्वरोजगार कृषि ही है। लेकिन कई तरह की समस्याओं के चलते लोग खेती को छोड़ रहे हैं। विकास के साथ जल, जंगल व जमीन के प्रति सोचने की भी जरूरत है।

 

प्रदेश में फसलों का क्षेत्रफल और उत्पादन

फसल — क्षेत्रफल हेक्टेयर में — उत्पादन मीट्रिक टन में

धान —        2,20,637  — 5,45,544

मक्का —     16,657   — 40,554

मंडुवा —      68,806   — 10,1058

गेहूं —       2,70,000   —8,19,207

झंगोरा —     35,181   — 54,479

चौलाई —    5,058     — 5,968

दालें —     53,423    — 50,008